सोमवार, 23 मई 2016

एक गीत - जला देना पुराने ख़त

अब गीत पूरा सा हुआ

जला देना पुराने ख़त निशानी तोड़ देना सब
तुम्हारी बात को माने बिना भी रह नहीं सकता
मिटा दूं भी अगर मै याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ||

तुम्हे तो सब पता है एक दिन की भी जुदाई में
वो सारा दिन मुझे बासी कोई अखबार लगता था
तुम्हारी दीद के सदके कई दिन ईद होती थी
तुम्हारा साथ जैसे स्वर्ग का दरबार लगता था ||

अचानक यूं तेरा जाना गवारा ही नहीं अब तक
मेरा मंदिर भरोषे का अचानक ढह नहीं सकता
मिटा भी दूं अगर मैं याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ।।

नज़र किसकी लगी होगी हमारे प्रेम-मंदिर को
ज़माने के कहे तुमने सभी उपवास रक्खे हैं
मिलन की चाहतें बस थीं, हमारी प्रार्थनाओं में
मगर रब ने हमारे वास्ते वनवास रक्खे हैं||

ये कैसी आजमाइश है खुदा ही जानता होगा
मुझे तो बस यही दुःख है किसी को कह नहीं सकता
मिटा भी दूं अगर मैं याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ।।

चलो छोडो किसे अब दोष का भागी बनाऊँ मै
अकेला हूँ नहीं जिसने जुदाई की सजा पाई
कई किस्से सुने थे पर कभी सोचा नहीं था ये
इधर होगा कुआं अपने लिए, होगी उधर खाई||

गिरे भी तो सम्हलने का नहीं मौक़ा मिला हमको
ये कैसा दर्द का दरिया कभी जो बह नहीं सकता
मिटा भी दूं अगर मैं याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ।।

अगर तुम चाहती हो खुश रहूँ मै प्यार खोकर भी
खुशी से ना सही अपना कोई तुम घर बसा लेना
नहीं मंजिल हमारे प्यार की हमको मिली लेकिन
किसी का प्यार बनकर तुम चमन उसका सजा देना ||

चलो अब ये कलम भी आसुओं का हाल ना लिख दे
दिलासों का बनाया घर खड़ा ज्यादा नहीं रहता
मिटा दूं भी अगर मै याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ||...........मनोज

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