शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

सपनो की बरात सजा कर, ले आया हूँ द्वार तुम्हारे



सपनो की बरात सजा कर, ले आया हूँ द्वार तुम्हारे 

योवन की पहली आहट जब ,लेने को आई अंगडाई
कोमल भावों ने धीरे से ,मन को ये आभास कराई
वर्षों से कल्पित आभा को ,आज पूर्ण साकार मिला है 
भावों की बूंदों को मेरी ,नदिया का आकार मिला है  
अनुबंधों के लेखे जोखे ,मुझको सब स्वीकार तुम्हारे 
सपनो की बरात सजा कर ,ले आया हूँ द्वार तुम्हारे ||

जाने कितने बरसों  मेरे , भावों ने उपवास रखे थे 
छल ना ले माया संयम को ,कीलक अपने पास रखे थे 
रह रह कर मर्यादा मुझको झूठे आश्वाशन देती थी 
कभी नहीं लांघी मैंने जब ,रुकने का आसन देती थी 
तुम भी आज खोल दो सारे,  संयम के श्रृंगार तुम्हारे 
सपनो की बरात सजा कर ,ले आया हूँ द्वार तुम्हारे ||

बूँदें स्वाती की गिरने दो  ,सदियों से चातक प्यासा है  
उठने दो सागर में लहरें , ये माझी की  अभिलाषा है 
आज छलकने दो आँखों से , संयम की वो रसमय हाला 
जलने दो तन मन में इतने ,वर्षों की आंदोलित ज्वाला 
आज खोल दो बंधे हुए थे जितने भी त्यौहार तुम्हारे 
सपनो की बरात सजा कर ,ले आया हूँ द्वार तुम्हारे ||

मनोज नौटियाल 








बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये |





मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये |

मै अभी भी गाँव के निर्दोष ग्वालों में मिलूंगा 
मै अभी भी माँ यशोदा के निवालों में मिलूंगा 
गाँव की भोली सुशीला के ख़यालों में मिलूंगा 
हल चलाते नन्द बाबा के सवालों में मिलूंगा 

गाँव को अब भी सुखी संसार कहते हैं प्रिये 
मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये ||

आज भी मै नाचता हूँ मोर की अंगड़ाइयों में 
कूकता हूँ कोकिला बन मै घनी अमराइयों में 
बैठता हूँ आज भी मै नीम की परछाइयों में 
दौड़ता हूँ आज भी मै शाम की पुरवाइयों में ||

इस धरा को आज भी केदार कहते हैं प्रिये 
मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये ||

मै सगर्भा पंछियों द्वारा बनाया घोसला हूँ 
पेड़ पर छत्ता बने मधुमक्खियों का हौसला हूँ 
तितलियों का पंख फैला नाचने की मै कला हूँ 
साथ मिलकर बोझ ढोते चीटियों का फैसला हूँ 

पीढ़ियों को आज भी परिवार कहते हैं प्रिये 
मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये ||

आज भी दादी मुझे हर रात गाये लोरियों में 
और दीदी प्यार से जामुन रखे अलमारियों में 
माँ मुझे पहचानती है लाल की किलकारियों में 
रंग भर भर फेंकते हैं यार सब पिचकारियों में ||

सब मुझे इस गाँव में त्यौहार कहते हैं प्रिये 
मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये ||

मै अभी भी भाइयों के प्रेम के अधिकार में हूँ 
मै अभी भी भाभियों के निर्विकारित प्यार में हूँ 
मै अभी भी खेत में मेहनत किये श्रृंगार में हूँ 
मै अभी भी कर्म के सीधे सरल संसार में हूँ ||

क्यूँ मुझे तुम आज अब व्यापार कहते हो प्रिये 
मै अभी भी हूँ जिसे तुम प्यार कहते हो प्रिये ||

मनोज

कल्पनाओं के सितारों को नवल आकाश दे दो







कल्पनाओं के सितारों को नवल आकाश दे दो 
दर्द की तपती बयारों को तरल एहसास दे दो ||

मोम के पुतले मिले मुझको मुहोब्बत की डगर में 
गल गए वो रास्ते में जिंदगी की दोपहर में 
रह गए सम्बन्ध केवल रेत के सुनसान टीले 
बो दिए भगवान ने भी दर्द के बाड़े कंटीले 
वक्त रहते भूल कर सब लौट आओ साथ मेरे 
या अधूरी वासनाओं को नया वनवास दे दो ||

भाल पर जलते रहे हैं कल्पनाओं के दिवाकर 
रात भर छलते रहे हैं , प्रेम के दो चार आखर 
द्वन्द की लंका बनाता ही रहा है रोज रावण 
राम से अनुबंध करता रह गया झूठा विभीषण 
बन जटायु तुम मुझे निर्देश दे दो जानकी का 
या अहिल्या की तरह मुझको चरण का वास दे दो ||

मन हवन सा जल रहा है चीरने को ये अँधेरा 
हर नया गंतव्य मुझसे पूछता है नाम मेरा 
कौन हूँ मै प्रश्न मुझको रात दिन अज्ञात पूछे 
वासना के कौरवो ने दे दिए उत्तर समूचे ||
तुम मेरे कुरुक्षेत्र में बन कृष्ण गीता गान कर दो 
या सुदामा की तरह मुझको कठिन उपवास दे दो ||

मै स्वयम्बर की तुम्हारी शर्त पूरी कर रहा हूँ 
मै बिना सोचे सही या व्यर्थ पूरी कर रहा हूँ 
शिल्प सच्चे प्रेम का गढ़ने समर्पण की धरा पर 
घर बनाने को मेरी हाँ है अँधेरी कन्दरा पर 
तुम रूप के इस चंद्रमा से लाज के बादल हटा दो 
या अमावास रात खुलने का मुझे विश्वास दे दो ||

कल्पनाओं के सितारों को नवल आकाश दे दो 
दर्द की तपती बयारों को तरल एहसास दे दो ||

मनोज नौटियाल

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

तुम जिसके सम्मुख भावों का गंगाजल अर्पण करती हो




तुम जिसके सम्मुख भावों का गंगाजल अर्पण करती हो 
उसके अंतर घट में केवल मन मंथन की मधुशाला है ||

तुमने केवल अब तक जिसके बाह्य जगत को पहचाना है 
उस अंतर में स्याह अमावास की रातों का वीराना है 
मोह करोगी निर्मोही से... क्या पा जाओगी बतलाओ 
इस बैरागी की कुटिया से तुमने खाली ही जाना है ||

तुम योवन की वर्षा करने जिसके आँगन में आई हो 
उसके जीवन के आँगन में केवल नफरत की ज्वाला है ||

आँखों से बहती गंगा से प्रछालन मंडप का करने
जहाँ रोज आते हैं लाखों परवाने उल्लासित जलने
जहाँ लगाती है परिणय की उबटन विरह वेदना आकर
करुणा पात्र सजाये जोगन माया क्या आएगी छलने ||

तुम परिणय प्रस्ताव प्रेम से लायी हो जिसकी ड्योढ़ी पर 
परम सत्य से परिणय कर वो पहने बैठा जयमाला है ||

आँखों में फ़रियाद नहीं है, मन में कोई याद नहीं है
खोने पाने का जीवन में ,शेष कोई अवसाद नहीं है
मस्ती की मधुशाला में ही उसका नित आना जाना है
गूँज रहा है गीत प्रेम का किन्तु कोई अनुनाद नहीं है ||

तुम तर्कों से जितना चाहो समझाने की कोशिश कर लो 
आखिर में हर निर्णय केवल , ये मन से करने वाला है ||

उसका प्रेम फकीरी धुन है ,उसकी वीणा उसका मन है
पूर्ण समर्पण से भी आगे , उसकी पूजा का आँगन है
विरह वेदना की लपटों में जलता रहता है वो जोगी 
तन की भस्म बना कर अपने स्वामी को देता चन्दन है ||

अब तुम ही बोलो कैसे तुम रह पाओगी घर में जिसके 
ना संस्कारों की चाबी है ....ना मर्यादा का ताला है ||


मनोज

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

इतनी सलवट कैसे आई वैरागी मन की चादर पर




इतनी सलवट कैसे आई बैरागी मन की चादर पर 

मैंने केवल इन आँखों से दर्शन भर की भिक्षा चाही ||



शायद बीते काल खंड को तुमने आत्म निमंत्रण देकर 
बुला लिए यादों के पाखी उजड़े बिखरे राज महल में 
टंके हुए हैं शिलाखंड कुछ गिजबिज सी आवाजें भी हैं 
फिर इनको अवलोकित करने क्यूँ जाते हो बीते कल में ||

तुमने सब इतिहास रख दिया मेरी कुटिया की ड्योढ़ी पर 
मैंने केवल इस जीवन से जीवन भर की शिक्षा चाही ||

तुमने फरियादी मन्त्रों से लाखों हवन जलाए होंगे 
जिसकी राख धुआं बन अब भी आसमान में उडती होगी 
मदनोत्सव के जाने कितने अनुष्ठान बैठाये तुमने 
जिनके चक्रवात से तेरी साँसें खुद से लडती होंगी ||

तुमने धूल भरी ये आंधी क्यूँ भेजी मेरी चौखट पर 
मैंने केवल आलिंगन में आने भर की इच्छा चाही ||

सत्य मार्ग पर ऊबड़ खाबड़ बिछी भरम की पगडण्डी पर 
तुम आभासी पर्वत को ही अपनी मंजिल मान गए थे 
थक कर जिसकी छावं तले तुम बैठे थे वो छणिक छलावे 
कोमल पैरों पर दुनिया की -जंजीरें पहचान गए थे ||

तुम अपना सर्वश्व सौंपने की अपनी जिद को समझा दो 
मैंने केवल आत्म मिलन की सीधी सरल परीक्षा चाही ||

बीते कल के भोजपत्र पर कितनी ही बातें झूठी थी 
लेकिन तुमने बिना पढ़े ही स्वीकारा था अनुबंधों को 
कुछ मौखिक अनुभव मैंने भी मौलिक अपने बतलाये थे 
निर्विकार कैसे जी सकते हैं - हम झूठे संबंधों को ||

तुम विस्तृत सुनाने बैठी हो मेरी ही पीड़ा मुझको 
मैंने केवल इस पीड़ा की मरहम तुल्य समीक्षा चाही ||


मनोज