सोमवार, 25 नवंबर 2013

सोच रहा हूँ आज कलम को अपने मन की बात बता दूँ




सोच रहा हूँ आज कलम को अपने मन की बात बता दूँ 
टूटे बिखरे सहमे घायल बीते सब जज्बात बता दूँ ||


ढाई आखर सुनकर कैसे भटक गया था मन बैरागी 
उस मायावी बीते कल की आज तुम्हे शुरुआत बता दूँ ||


लिखा नहीं जो अब तक मैंने सच के कोरे भोजपत्र पर 
क्यूँ जीवन अभिनय बन बैठा वो सारे हालात बता दूं ||


अब तक जिसने भी खोजा है मुझको मेरी रचनाओं में 
उन सारे अनुमानों का मै सही गलत अनुपात बता दूँ ||


बरसों पहले शुरू हुयी थी काली रात अमावास की जो 
अब तक कैसे नहीं हुयी है उसकी नव प्रभात बता दूँ ||


कैसे नफरत की छेनी से गढ़ा गया कोरे पत्थर को 
इस मूरत पर शिल्पकार के दिए हुए आघात बता दूँ ||


चाहत की मंडी में मैंने सारी खुशियाँ मुफ्त बाँट दी 
दर्द भरी दुनिया ये मुझको किसने दी सौगात बता दूँ ||


सोच रहा हूँ आज कलम को अपने मन की बात बता दूँ 
टूटे बिखरे सहमे घायल बीते सब जज्बात बता दूँ ||


मनोज नौटियाल

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

रे मनवा क्या ये संभव है ?




रे मनवा क्या ये संभव है ?


क्या ये संभव है लौट आयें बचपन की वो सरल शरारत 
कोरे कागज़ सा मन जिस पर होती थी मासूम शिकायत 
दुनिया खेल खिलौनों की वो जिसमे केवल वर्तमान था 
हँसना रोना अंतर्मन से , अल्ल्हड़ होती थी हर चाहत ||

ना कोई मन में शंशय है 
रे मनवा क्या ये संभव है ?

माँ फिर से वात्सल्य लुटाये , पापा लाड़ करें पग पग पर 
ना कुछ करने की चिंता हो , ना जीवन अटका हो कल पर 
आँगन भर दुनिया हो केवल , कमरे भर अपने बसते हों 
अ आ इ ई ज्ञान पूर्ण हो , वन टू का हो गणित पटल पर ||

ना कोई पेपर का भय है 
रे मनवा क्या ये संभव है ?

परियों की हो मधुर कहानी , रोज सुनाएँ दादी नानी 
दादा -नाना घोड़ा बनकर , करते हों मेरी अगवानी 
पंचतंत्र की नैतिक शिक्षा , संस्कारों की परिभाषा हो 
गुल्ली डंडा खेलें मिलकर , सब करते अपनी मनमानी ||

जीत हार का ना आशय है 
रे मनवा क्या ये संभव है ?

बना नाव कागज़ की उसको वर्षा के जल में दौडाना 
वायुयान भी कागज का ही खुली हवा में उसे उडाना 
राजा ,रानी ,चोर , सिपाही कागज़ के टुकड़ों पर लिख कर 
कौन चोर है कौन सिपाही आपस में बेख़ौफ़ बताना ||

खेल खेल में होती जय है 
रे मनवा क्या ये संभव है ?

भूख टिफिन भर होती केवल प्यास एक थर्मस का पानी 
डर का नाम मास्टर जी थे , चिंता ना हो ड्रेस पुरानी 
आशा छुट्टी की घंटी थी , अभिलाषा संडे कब आये 
दुःख केवल नंबर कम आना ,आँखों से जब बरसे पानी ||


बचपन कितना आनंदमय है 
रे मनवा क्या ये संभव है ?



 मनोज नौटियाल 

सोमवार, 18 नवंबर 2013

प्यास बुझाने को मत कहना, खारे जल की धारा हूँ मै



प्यास बुझाने को मत कहना, खारे जल की धारा हूँ मै 
दुआ मांग लो जो मन में हो , एक टूटता तारा हूँ मै ||

तेरी चाहत के सागर की गहराई क्या नाप सकूँगा 
सावन में निकले दरिया का सूखा हुआ किनारा हूँ मै ||

मेरी दुनिया में चाहत की छाँव खोजने मत आ जाना 
जल जाओगी तुम भी ऐसा नफरत का अंगारा हूँ मै ||

मेरी ये मुस्कान देख कर तुमने क्या समझा तुम जानो 
सच ये है वर्षों से दुःख का , प्यारा राज दुलारा हूँ मै ||

मेरा प्यार अकेलापन है ,और प्रेमिका मेरा मन है 
तन्हाई जोगन है मेरी , और उसका इकतारा हूँ मै ||

मेरी ये परिभाषा तुमको ,शायद भाये या ना भाये 
लेकिन तुम शर्तों को त्यागो , देखो सिर्फ तुम्हारा हूँ मै ||

प्यास बुझाने को मत कहना, खारे जल की धारा हूँ मै 
दुआ मांग लो जो मन में हो , एक टूटता तारा हूँ मै ||
मनोज

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

भटक रहा हूँ प्यासा अब तक खारे पानी के सागर में





भटक रहा हूँ प्यासा अब तक खारे पानी के सागर में 
तुम को कैसे दे पाऊंगा मानसरोवर का गंगाजल ?

अमृत की चाहत में निकला करने जब इस मन का मंथन 
बीत राग के विष के घट से झुलस गया सारा अंतर्मन 
मांग रहा अस्तित्व सिसकते एहसासों का लेखा -जोखा 
वर्तमान बन गया विवशता और भविष्य मृत्यु का आँगन ||

मौन साधना की चाहत में खोज रहा हूँ मै वीराना 
डरा रहा है अब मुझको तेरा विषय वासना का कोलाहल ||

सदियों पहले हम दोनों ने मिलकर कुछ एहसास लिखे थे 
एक साथ जीने मरने के सच्चे शुभ विश्वास लिखे थे 
पुनः आज तुमने जो देखे चित्र स्वप्न में बीते कल के 
सदियों से दोनों ने मिलकर हमने वो इतिहास लिखे थे ||

लेकिन वर्तमान अब अपना विलग विलग दो धाराएं हैं 
संभव है गंगा सागर में भी मिलना हो जाए मुश्किल ||

मै जब पहली बार खोलने आया था शापित दरवाजा 
अच्छा होता लौट गए होते सुनकर वो झूठा वादा 
या फिर दुनिया की निर्मोही झूठी रश्मों को ठुकरा कर 
लांघ गए होते हम दोनों संबंधों की सब मर्यादा ||

अब मैंने अपने साहस को कहीं और कर डाला अर्पित 
रीता ही रखना होगा अब तुमको अपना रीता आँचल ||

मेरी दुनिया में सच मानो वर्षों से अब केवल मै हूँ 
आत्मसमर्पण भी मै ही हूँ अहंकार भी केवल मै हूँ 
कब्रिस्तान समझ कर बैठा हूँ मै माया की बस्ती में 
युद्ध स्वयं से है मेरा ये दुश्मन भी खुद का मै ही हूँ ||

तुम भी यदि लड़ना चाहो तो लड़ लेना उस बीते कल से 
मेरी बैरागी कुटिया में स्वागत है तेरा भी निश्छल ||


मनोज