रिश्तों की केसर क्यारी में एहसासों के तटबंधों पर
क्यों नफरत की नागफनी के कांटे बोना चाह रही हो
मिलकर के एकत्र किये जो संबंधों के पारस हमने
क्यों स्वारथ के शापित जल से उनको धोना चाह रही हो ||
मेरे मन के दरवाजे की संयम की सांकल को तुमने
पूर्ण समर्पण की तेजाबी बारिश बन कर तोड़ दिया है
सम्मोहन के तीव्र मन्त्र से भंग हो गयी भीष्म साधना
माया मन्त्र सिखा कर मुझको दोराहे पर छोड़ दिया है ||
अब भी बैरागी बस्ती में मेरी कुटिया खाली ही है
क्यों तुम दुनिया के मेले में तनहा होना चाह रही हो ||
अब भी आशा के सूरज की कोमल धूप सुखा सकती है
सच्ची चाहत के दामन में आंसू से आई सीलन को
अब भी तेरे सूने मन की पथरीली चौखट के आगे
तेरा एक इशारा जो हो न्योछावर कर दूं जीवन को ||
पहले ही खारे एहसासों से बंजर है मेरा जीवन
क्यों तुम इस सूने आँगन में फिर भी रोना चाह रही हो ||
झूठे खाते नासमझी के जितने भी है उन्हें जलाकर
सच्चाई के गंगाजल से चलो आचमन कर लेते हैं
प्रेम हवन में दोनों मिलकर पश्चाताप आहुती डालें
इक दूजे के मन मंदिर में पुनः आगमन कर लेते हैं ||
मै अपना सर्वश्व त्याग कर तुमको पाना चाह रहा हूँ
क्यूँ तुम अपने मै के कारण मुझको खोना चाह रही हो
रिश्तों की केसर क्यारी में एहसासों के तटबंधों पर
क्यों नफरत की नागफनी के कांटे बोना चाह रही हो||
------------------मनोज नौटियाल ------------------