मंगलवार, 30 जुलाई 2013

सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी





सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी
है सफ़र लम्बा मगर साँसे उखड़ने लग गयी||

ख्वाब को सच्चाईयों से भी मिलाना था मगर
रात आई नींद आँखों से बिछड़ने लग गयी ||

वक्त से भी तेज चलने की हमारी चाह में
जिंदगी की बैलगाड़ी ही पिछड़ने लग गयी ||

हम मुहोब्बत को वफ़ा से सींचते ही रह गए
बेवफाई की उन्हें दीमक पकड़ने लग गयी ||

कल लड़कपन में जिन्होंने तोड़ डाली डालियाँ 
आज वो कलियाँ हया से सुर्ख पड़ने लग गयी ||

भूल बैठे थे जिन्हें हम रेत का तूफां समझ
आंसुओं की धार से फिर धूल झड़ने लग गयी ||

अलविदा कह दें भला कैसे जहाँ को हम अभी
हाथ उठते ही नयी आशा जकड़ने लग गयी ||

सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी
है सफ़र लम्बा मगर साँसे उखड़ने लग गयी||

मनोज

3 टिप्‍पणियां:

  1. अलविदा कह दें भला कैसे जहाँ को हम अभी
    हाथ उठते ही नयी आशा जकड़ने लग गयी ||

    ...दिल से बधाई सर जी ||

    नई रचना
    तभी तो हमेशा खामोश रहता है आईना !!
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

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