मंगलवार, 30 जुलाई 2013

सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी





सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी
है सफ़र लम्बा मगर साँसे उखड़ने लग गयी||

ख्वाब को सच्चाईयों से भी मिलाना था मगर
रात आई नींद आँखों से बिछड़ने लग गयी ||

वक्त से भी तेज चलने की हमारी चाह में
जिंदगी की बैलगाड़ी ही पिछड़ने लग गयी ||

हम मुहोब्बत को वफ़ा से सींचते ही रह गए
बेवफाई की उन्हें दीमक पकड़ने लग गयी ||

कल लड़कपन में जिन्होंने तोड़ डाली डालियाँ 
आज वो कलियाँ हया से सुर्ख पड़ने लग गयी ||

भूल बैठे थे जिन्हें हम रेत का तूफां समझ
आंसुओं की धार से फिर धूल झड़ने लग गयी ||

अलविदा कह दें भला कैसे जहाँ को हम अभी
हाथ उठते ही नयी आशा जकड़ने लग गयी ||

सब्र की बैसाखियाँ कमजोर पड़ने लग गयी
है सफ़र लम्बा मगर साँसे उखड़ने लग गयी||

मनोज

यही उपकार काफी है कि अब उपकार मत करना




यही उपकार काफी है कि अब उपकार मत करना 


हमारे प्यार के बदले हमें तुम प्यार मत करना ||





तुम्हारे अक्स को अब आंसुओं से धो दिया मैंने 

पलट कर फिर निगाहों से निगाहें चार मत करना ||


गुरूर -ए-हुश्न में तुमने सुबह से ख्वाब तोड़े थे 

बिछड़ती शाम से अब तुम उन्हें गुलजार मत करना ||


सुलगती दोपहर में छाँव बनकर याद गर आये 

झरोखे बंद कर देना कभी दीदार मत करना ||


तुम्हारी बेवफाई के चुभे खंजर कई दिल में 

हरे हैं जख्म अब तुम फिर पलट कर वार मत करना ||


मिलें जो हम कभी मरकर मुहोब्बत की अदालत में 

मुझे फिर प्यार करने की सजा स्वीकार मत करना || 


यही उपकार काफी है कि अब उपकार मत करना 

हमारे प्यार के बदले हमें तुम प्यार मत करना ||

             
मनोज