शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

राजनीति के सिलबट्टे पर घिसता पिसता आम आदमी

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राजनीति के सिलबट्टे पर घिसता पिसता आम आदमी 
मजहब के मंदिर मस्जिद पर बलि का बकरा आम आदमी ||
राजतंत्र के भ्रष्ट कुएं में पनपे ये आतंकी विषधर 
विस्फोटों से विचलित करते सबको ये बेनाम आदमी ||

क्या है हिन्दू, क्या है मुस्लिम क्या हैं सिक्ख इसाई प्यारे
लहू एक हैं - एक जिगर है एक धरा पर बसते सारे
एक सूर्य से रौशन यह जग , एक चाँद की मस्त चांदनी
विस्फोटों से विचलित करते सबको ये बेनाम आदमी ||

चाँद देखकर ईद मनाओ और पूज कर पूरनमासी
गीता पढ़कर धर्म जगाओ पढ़ कुरान आयत पुरवा सी
गुरुवाणी में सत्य दरश है ,त्याग बाइबल की अनुगामी
विस्फोटों से विचलित करते सबको ये बेनाम आदमी ||

खून बहाकर क्या पाओगे , ख़ाक कोई जन्नत जाओगे
मरने से तुम भी डरते हो तुम क्या मौत बदल पाओगे
खुदा देख पछताता होगा किसने ये बन्दूक थमाई
विस्फोटों से विचलित करते सबको ये बेनाम आदमी ||

याद रहे मेरे भारत में भगत सिंह भी हैं ,गाँधी भी
शांति मार्ग के बुद्ध देव भी , राम कृष्ण जैसी आंधी भी
यही इशारा काफी होगा समझदार तुम भी हो काफी
विस्फोटों से विचलित करते सबको ये बेनाम आदमी ||.............. manoj
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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

कृष्ण और सुदामा की मित्रता


मित्रों संसार में मित्रता का सबसे बड़ा उदाहरण है कृष्ण और सुदामा की मित्रता का वृत्तांत | उसी करुण मित्रता के दृश्य को एक रचना के माध्यम से लिखने का प्रयास किया है | कृपया आप अवलोकित करें |

एक बार द्वारिका जाकर बाल सखा से मिल कर देखो
अपने दुःख की करुण कहानी करूणाकर से कह कर देखो ||

हे नाथ ! दशा देखो घर की, दुःख को भी आंसू आयेंगे
तुम्हरी , मेरी तो बात नहीं बच्चों को क्या समझायेंगे ?
भूखी , नंगी व्याकुलता के दर्शन हैं उनकी आखों में
सब भिक्षा पात्र भयो रीतो , अब कैसे उन्हें मनाएंगे ?

तन पर वस्त्र आवरण केवल, वस्त्र रह गया है कहने को
बहुत हुआ स्वामी अब मानो ,और बचा क्या अब सहने को ||

ब्राह्मण है यह दीन सुदामा , सखा तीन लोक का स्वामी
संभव है वो भूल गया हो , बचपन की सब बात पुरानी
मै तो हर दिन चाहूँ जाना लेकिन डर है मुझे सुशीला
स्वार्थ छुपा है मिलन धेय में , सब जाने है अन्तर्यामी ||

वैसे भी कुछ नहीं पास में अपने कान्हा को देने को
खाली हाथ नहीं जाऊँगा , अपने कृष्णा से मिलने को ||

यदि तुम हाँ बोलो तो स्वामी चावल मांगू दूजे घर से
कह देना देवर कृष्णा को भाभी ने भेजें हैं घर से
मित्र वधू का चरण दंडवत कह देना उनको हे स्वामी
अपनी भाभी को कह देना शुभ आशीष हमेशा बरसे ||

कितने दिन अब और अमावास रात रहेगी यूँ कटने को
कितने दिन एकादश व्रत अब शेष रहें है यूँ रखने को ||

फटी पुरानी धोती तन पर बाहों में पोटल तांदुल की
चला सुदामा रोते -रोते मन में आशा मित्र मिलन की
नंगे पैर चुभे कंटक से पीड़ा से जागे व्याकुलता
दूर नजर आ रही द्वारिका , वैभव की सुन्दरतम झलकी ||

नगर देख कर विस्मय उपजा जैसे देख रहा सपने हो
कभी देखता स्वर्ण महल को कभी देखता खुद अपने को ||

मुख्य महल के द्वारपाल से लगा पूछने कृष्ण धाम को
द्वारपाल सब हंसकर बोले हे पंडित परिचय प्रमाण दो
बोला नाम सुदामा मेरा बाल सखा हूँ बनवारी का
सुनकर द्वारपाल चौंके सब लगे ताकने दीन- दाम को ||

सुनते ही दौड़े हैं मोहन मुख्यद्वार- स्वागत करने को
सभी रानियाँ चौंक पड़ी जब नंगे पैर चले मिलने को ||

मित्र मिलन की व्याकुलता मे भूल गयो मोहन सब सुध -बुध
मुख्य द्वार पर दीन दशा में देखा मित्र खड़ा है बेसुध
गले लगाया दीन-बंधू ने बाल सखा को रोते -रोते
मित्र मिलन की सुन्दर बेला मित्र प्रेम का दर्शन अद्भुत ||

धन्य हुआ मै मित्र सुदामा , आया है मुझसे मिलने को
रथ पर बैठाया माधव ने बोला राज महल चलने को ||

सिंघासन पर आसन देकर देख सुदामा के पग कंटक
व्याकुल होकर अश्रु धार से धोने लगे दया दुःख भंजक
पीताम्बर से पैर पोंछ कर , पञ्च द्रव्य अभिसेख कराया
भाव विभोर भयो सब देखत दृश्य बड़ा अंतर्मन रंजक ||

आज सुदामा सोच रहा सच कहती थी वो मिल कर देखो
अपने दुःख की करुण कहानी करूणाकर से कह कर देखो ||

सुनो सुदामा भाभी जी ने क्या भेजा देवर की खातिर
लगा छुपाने तांदुल पागल , धन वैभव का दृश्य देखकर
छीन लियो मोहन ने तांदुल बड़े चाव से लगे चबाने
पंडित सोच रहा ये तांदुल लाया मै बेकार यहाँ पर ||

दो मुट्ठी में दो लोकों का वैभव दान दिया पगले को
रोक लिया रानी ने बोली खुद भी कुछ चहिये रहने को ||

जाने की बेला पर सोचा, शायद कान्हा खुद दे देगा
शंशय में चल पड़ा सुदामा बिना दिए ही वापिस भेजा
सोच रहा क्यूँ कर आया मै बात समझती नहीं सुशीला
जो मांगे हुए पडोसी से हैं तांदुल वापिस कैसे होगा ||

टूटा छप्पर गायब देखा महल खड़ा देख्यो सोने को
रानी बनी सुशीला बैठी राजकुमार पुत्र अपने दो ||

फूट -फूट कर रोते रोते लगा कोसने अपने मन को
कितना पापी है यह पंडित जान सका ना मनमोहन को ||......manoj
 

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

द्रोपदी चीर हरण विरह गीत


मित्रों , सुप्रभात | यह रचना है कुरुवंश के दरबार में जब पांडव द्यूत गृह में कौरवों से हार जाते हैं और इस हार जीत के खेल में इतिहास की यह पहली घटना है जब एक नारी को भी दांव पर लगाया जाता है | द्रोपदी को दुशासन खींच कर सभा में ले आता है | और फिर द्रोपदी सभी कुरुवंशी अपने अग्रजों को धिक्कारती है | तो लीजिये यह रचना आपके अवलोकन हेतु ||
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हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित
वस्तु समझ कर नारी को यूँ करते हो क्यूँकर अपमानित ||

अस्मत आज भले ही मेरी, लूट रहे हैं वंशज मिलकर
कल इतिहास बनेगा यह दिन, थूकेगा जग हर कौरव पर
अंधों की मर्यादा का क्या अवलोकन मै करूँ धृष्ट जी
अर्ध अंग गांधारी जिसकी आँख ढके हो खड़ी बराबर ||

क्या अभिवादन दूं , मै तुमको वीर कहूँ या धर्म पराजित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

तुमको भी धिक्कार युधिष्टिर बड़े धर्म के अनुयायी हो
तुम तो उठ जाते झुक जाते इन सबके अग्रज भाई हो
कैसे तुमने स्वाभिमान की बलिवेदी पर मुझे लुटाया
भूल गए वह वचन कहा था तुम तो मेरी परछाई हो ||

पांचाली का प्रेम शब्द तो रहा हमेशा ही अविभाजित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

गुरुवर द्रोंण आपको भी मै अपराधी घोषित करती हूँ
एकलव्य के शोषण कर्ता हो मै ,परिभाषित करती हूँ
अपनी बेटी को क्या ऐसे सार्वजनिक देख सकते थे ?
सब हैं शिष्य आपके गुरुवर धन्य- धन्य बोधित करती हूँ

ज्ञान आपका द्रोंण आज ये कर्म कर रहा है अति घृणित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

कृपाचार्य जी क्या बोलूं मै अजर -अमर जीवन धारी को
शरण आपकी आने से क्या मोक्ष मिलेगा इस नारी को ?
राजनीति को ख़ाक पता होगा पांचाली का यह रूदन
पंडित होकर भी जिस मन पर धर्म विरोधी किलकारी हो ||

आचार्यों की दृष्टि झुकी ज्यूँ अन्ध वंश को हुयी समर्पित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

क्या बोलूं मै भीष्म आपकी प्रतिज्ञा के समझौते को
मुझे पता है नहीं रोक सकते हो तुम अपने पोते को
जिसने अपनी प्रतिज्ञा की खातिर अम्बा को रुलवाया
दुशासन की दुष्ट नीति पर आप मौन साध देते हों ||

हे गंगा के पुत्र भीष्म जी रख लो नया पाप यह अर्जित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

हे द्वारिका देश के वासी मेरे सखा कृष्ण गिरधारी
आज लाज की भीख मांगती तुम्हे पुकारे भक्त तुम्हारी
मेरे पञ्च परम परमेश्वर लगा गए दांव पर मुझको
अब तू ही है, मेरा जिस पर भार भरोषा है बनवारी

मेरी लाज आज रखले तू मेरे केशव धर्म सुरक्षक
तेरी कृष्णा तुझे पुकारे - कृष्ण मेरे हे सच्चे मालिक ||

दिया अब सब्र का भी बुझ रहा अंतिम बगावत है
















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दिया अब सब्र का भी बुझ रहा अंतिम बगावत है
मगर ये  रात खुलती ही नहीं लम्बी अमावस है ||

तमन्ना की जमीं पर जब कभी भी घर बनाया था
हकीकत की लहर ने एक पल में सब डुबा डाला |
मेरी कोशिश मनाने की अभी तक भी निरंतर है
सभी  नाराज होने की वजह को भी मिटा डाला ||

तुम्हारा रूठना अब लग रहा मुझको क़यामत है
सभी आदत बदल लूँगा तुम्हे जिन पर शिकायत है ||

वजह क्या थी खता क्या थी मुझे ये तो बता देते
जरा सी बात पर यूँ चल दिए मुझको सजा देकर |
....मनाने के लिए तुम मांग भी लेते अगर साँसे
......मुझे मंजूर होती मौत भी तुमको दुआ देकर ||

मेरे दिल में तुम्हारे नाम की अब भी लिखावट है
न जाने क्यूँ तुम्हे शक है मुहोब्बत में मिलावट है ||

अगर कल मै कहीं थक कर अचानक मौत मांगूंगा
मेरी ये आखिरी ख्वाइश समझ कर माफ़ कर देना |
ये जो  इल्जाम तुमने बेवजह मुझ पर लगाये हैं
.....गुनाहों का पुलिंदा खोल कर इन्साफ कर देना ||

निहारा ताज को जिसने- कहा सुन्दर बनावट है
किसी ने यह नहीं सोचा दफ़न उसमे मोहोब्बत है ||.........मनोज






शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

कवियों की बस्ती




























कवियों की बस्ती में कौवे करते यहाँ बसेरा हैं 
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

एहसास हुआ निस्वास यहाँ पर मर्यादा का ओछापन
करतूतें काली करते हैं ज्ञान बांटते मूरख जन
दुर्व्यवहार दंभ अभिलाषी सरपंचों का मंच गजब है
लेखन नहीं लेखनी इनकी अपशब्दों का दंश अजब है ||

काली रात अमावास की है सहमा हुआ सवेरा है
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

राज नहीं कर पाए बेहतर राजपूत की शान दिखाएँ
गलती के परिणाम यहाँ पर खुद को ही सम्मान दिलाएं
भीड़ सियारों की शेरों को घेर रही है आज अकारण
खुद ही अपने हाथों करने चला भेड़िया अपना मारण

मिट जाएगा दंभ मूढ़ जिसने तुझको यूँ घेरा है
आग उगलते खुद ही जलते दीपक तले अँधेरा है ||

दीपक की मर्यादा केवल जलने तक ही सीमित है
राजपूत के सही मायने इतिहासों में कीलित हैं
मार लेखनी की जब बरसी बड़े बड़े बर्बाद हो गए
शब्द अर्थ के विस्तारों में कितने ही अनुवाद हो गए

तूफानों से दीपक लड़ ले निश्चित समझ अँधेरा है
कवियों की बस्ती में कौवे करते यहाँ बसेरा हैं ||......मनोज

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

हनुमंत नाम रख देने से क्या रामदूत बन जाओगे


हनुमंत नाम रख देने से क्या रामदूत बन जाओगे
राजा की भक्ति करके क्या राजपूत बन जाओगे
अपने ही शब्दों में खुद को बड़ा बताने वाले लोंगो
राख बनोगे जिस दिन उस दिन क्या भभूत बन जाओगे ||

रावण के अंतर्मन में भी ज्ञान पुंज का उजियारा था
दंभ भरा था दस शीशों में बडबोले का अंधियारा था
वर्तमान के शाह सिकंदर सभी काल के बने निवाले
धरा रह गया राज काज सब जिसके कल तक थे रखवाले ||

चिर परम्परा को झुट्लाकर क्या अग्रदूत बन पाओगे
राख बनोगे जिस दिन उस दिन क्या भभूत बन जाओगे ||

यदि भाव नहीं भर सकते हैं जो शब्दों के संयोजनकारी
क्यूँ कर कहते हैं वे खुद को तुलसी के अग्रज मनुहारी
काव्य धर्म की मर्यादा पर चंद्रग्रहण बन कर मत बैठो
सूरज को तुम समझो लेकिन हट धर्मी बन कर मर देखो

हिम खण्डों में विचरण करके क्या अवधूत बन जाओगे
राख बनोगे जिस दिन उस दिन क्या भभूत बन जाओगे ||.....मनोज

कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो





































कभी गुलामी के दंशों ने , कभी मुसलमानी वंशों ने
मुझे रुलाया कदम कदम पर भोग विलासीरत कंसो ने
जागो फिर से मेरे बच्चों शंख नाद फिर से कर डालो
फिर कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो||

मनमोहन धृष्टराष्ट बन गया कलयुग की पहचान यही है 
गांधारी पश्चिम से आकर जन गण मन को ताड़ रही है
भरो गर्जना लाल मेरे तुम माँ का सब संकट हर डालो
फिर कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो ||

 टू जी आवंटन का रेला  ओलम्पिक में चौसर खेला
    खाद्यानो में घोल रहे हैं महंगाई का जहर  विषैला
विषधर ना बन पायें कल ये सभी सपोले दफना डालो
फिर कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो ||

पन्ने बीते कल के खोलो मैंने कितने वीर जने हैं
तिलक मेरी मिटटी का करके लाल मेरे रणवीर बने हैं
कालिख पोते इन दुष्टों के काट मुंड गर्जन भर डालो
 फिर कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो ||

फिर मेरे गौरव को सोने की चिड़िया का ताज लगा दो
इन दुष्टों के काले धन को चौराहे पर आग लगा दो
 नहीं चाहिए मुझको जूठन भूखे शेरों घात लगा लो
 फिर कौरव सेना सम्मुख है एक महाभारत रच डालो ||..........मनोज

प्रेम तत्व का सार कृष्ण है


















प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है |
ब्रह्म ज्ञान मत बूझो उद्धव , ब्रह्म ज्ञान का सार कृष्ण हैं ||

मुरली की धुन सामवेद है , ऋग् यजुर आभा मुखमंडल
वेद अथर्व रास लीला है ,शास्त्र ज्ञान कण कण बृजमंडल ||
अब कौन रहा जो धर्म सिखावन चाह रहे हो उद्धव हमको
जा कर कह दो निर्मोही को यूँ छोड़ गए क्यूँ कर व्याकुल ||

हम जोगन का प्यार कृष्ण है तन मन का श्रृंगार कृष्ण है
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है ||

हे उद्धव आँखों से बहती अश्रुधार से भीगा आँगन
विरह अग्नि में झुलसा तन बस कृष्ण दरस का चाहे चन्दन
उस पर तुम ये ब्रह्म सत्य का झूठा आश्वाशन यदि दोगे
सत्य सपथ अपने कान्हा की प्राण त्याग देंगी हम जोगन ||

अब अपना सरकार कृष्ण है जीवन की दरकार कृष्ण है
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है ||

देखो ये खग मृग जल थलचर इनकी व्याकुलता को जानो
कृष्ण दरस की लगी टकटकी इनकी आँखों में पहचानो
देखो गौशाला में कैसी गुमसुम है गौमाता उद्धव
तुम ठहरे निर्गुण निर्मोही पशुओं की पीड़ा क्या जानो ||

इन सब का त्यौहार कृष्ण है जीवन में रसधार कृष्ण है
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है ||

वृन्दावन का देखो कैसे कुम्हलाया मुरझाया उपवन
गोवर्धन का शिखर झुका है खोज रहा हो ज्यूँ आलंबन
यमुना की धाराएं देखो भूल गयी है कलरव अपना
श्याम बिना बेचारी श्यामा भूल गयी है अपना क्रंदन ||

राधा का आधार कृष्ण है , यमुना का मझधार कृष्ण है
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है ||

उद्धव क्या मोहन ने कोई पाती नहीं लिखी है हमको ?
उस पाती को गले लगा कर संभव शांति मिले इस तन को
कुछ बोला होगा अधरों से तुम केवल वो शब्द सुना दो
मनमोहन को मन में रख कर सुन तो लेंगी प्रियतम को ||

जीवन में उपकार कृष्ण है , एक परम स्वीकार कृष्ण है
प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है ||

उनको कहना भीगे नयनों से दासी ने किया दंडवत
चरणों में ही रखते चाहे छोड़ गए क्यूँ करके जडवत
प्राण नही खो सकते हैं हम प्राणों में भी तुम बसते हो
रमे हुए हो रोम रोम में सिरहन उठती जब लें करवट ||

उद्धव तेरा ज्ञान कृष्ण है ब्रह्म सत्य का सार कृष्ण है
हम विरहन चाहे अज्ञानी हम सबका अज्ञान कृष्ण है ||............मनोज

ख़ुशी को ये भिगाते हैं ग़मों को ये जलाते हैं


                                                     
















ख़ुशी को ये भिगाते हैं ग़मों को ये जलाते हैं
बिना बोले कभी आंसू बहुत कुछ बोल जाते हैं
समझने के लिए इनको मोहोब्बत का सहारा है
......नहीं तो देखने वाले तमाशा ही बनाते हैं ||

सिसक हो बेवफाई की कसक चाहे जुदाई की
पिघलता है सभी का दिल हवन की आहुती जैसे
ख़ुशी नमकीन पानी से अधिक रंगीन बनती है
कभी ग़मगीन लम्हों की सजी हो आरती जैसे ||

कहीं जब दूर जाए लाडला माँ से जुदा होकर
बहाए प्रेम के मोती दुआएं जब निकलती हैं
करे जब याद माँ का घर बहू जो बन गयी बेटी
मिलन की प्यास आँखों में सम्हाले ना सम्हलती है ||

सुहागन सेज पर बैठी अकेली याद में उनकी
जुदाई की अमावास में अकेली रात को रोये
कभी अंगड़ाइयाँ देती गवाही प्रेम उत्सव की
तपिश बीते हुए कल की जलाए आग जो सोये ||

जब भाव वंदन का बना- जगदीश के घर पर
बरसता है समर्पण प्रेम का मोती निगाहों में
समझने के लिए बचता नहीं कुछ गीत गोपी का
किशन को मांगती क्यूँ थी बुलाती थी दुआओं में ||


हजारों रंग के एहसास हैं- लाखों कहानी है
कोई कीमत समझता है कोई कीमत लगाते हैं
ये मोती प्यार के भी हैं कभी तकरार के भी हैं
ख़ुशी को ये भिगाते हैं ग़मों को ये जलाते हैं

समझने के लिए इनको मोहोब्बत का सहारा है
......नहीं तो देखने वाले तमाशा ही बनाते हैं ||..............मनोज
  

बहती पवन भाष्कर
































बहती पवन भाष्कर किरन सरिता गमन दासी नहीं 
कल्पना कवि की किसी परिणाम की प्यासी नहीं 
तोलना रचना किसी की तुला दान नहीं कोई 
हृदय के उदगार की एक आह कविलासी नहीं ||

ये नुमाइश मर्म की है दर्द को महसूस कर 
चाँद भी तप जायेगा  शब्दों की ये ऐसी अगन 
लेखनी ने राम को भी पुस्तक बना कर रख दिया 
कलम फक्कड़ है ये कभी इक गावं की वासी नहीं 
कल्पना कवि की किसी परिणाम की प्यासी नहीं ||.... मनोज 

मै एक नवजात शिशु हूँ

मै एक नवजात शिशु हूँ 
मेरी कोई भाषा नहीं है 
केवल भाव हैं ..... हँसना और रोना 
मेरा संसार ये छोटा सा बिछौना
मातृत्व का बोध ही मेरा पहला ज्ञान है 
बस यही मेरी पहचान है 
कोई पुस्तक नहीं पढ़ी न वेद न कुरान 
और न ही जनता हूँ मै कोई संविधान 
आत्मा और शरीर का मिलन हूँ 
बिल्कुल खाली हूँ कोरे कागज सा 
निश्छल हूँ शीतल उषा किरण हूँ 
विराट बहुत है ये संसार फिर भी घुटन है 
जलते हुए लोगों के सिकुड़े हुए तन मन है 
मेरी नौ माह की तपस्या के सारे ज्ञान को 
मेरी सच्चाई और मेरी असली पहचान को 
तुम वक़्त  के साथ गुमनाम बना दोगे  
पहना कर मुझे झूठा मुखौटा छल कपट का 
अपनी तरह ही मुझे इन्सान बना दोगे ........मनोज 

मै एक नवजात शिशु हूँ

मै एक नवजात शिशु हूँ 
मेरी कोई भाषा नहीं है 
केवल भाव हैं ..... हँसना और रोना 
मेरा संसार ये छोटा सा बिछौना
मातृत्व का बोध ही मेरा पहला ज्ञान है 
बस यही मेरी पहचान है 
कोई पुस्तक नहीं पढ़ी न वेद न कुरान 
और न ही जनता हूँ मै कोई संविधान 
आत्मा और शरीर का मिलन हूँ 
बिल्कुल खाली हूँ कोरे कागज सा 
निश्छल हूँ शीतल उषा किरण हूँ 
विराट बहुत है ये संसार फिर भी घुटन है 
जलते हुए लोगों के सिकुड़े हुए तन मन है 
मेरी नौ माह की तपस्या के सारे ज्ञान को 
मेरी सच्चाई और मेरी असली पहचान को 
तुम वक़्त  के साथ गुमनाम बना दोगे  
पहना कर मुझे झूठा मुखौटा छल कपट का 
अपनी तरह ही मुझे इन्सान बना दोगे ........मनोज 

ये कलम हम कलम बन गई है

ये कलम हम कलम बन गई है 


शौक ही अब सनम बन गयी है 


बेवफाई करेगी क्या मुझसे 


आइना-ए- भरम बन गई है 

जिक्र करती मेरी हर फिकर की

दर्द की और मेरी खुस नजर की

हमसफ़र हमकदम बन गई है

ये कलम हम कलम बन गई है


ये सवाँरे मेरी हर गजल को

दिखाए मुझे राहे कल को

दर्द का ये मलहम बन गई है

ये कलम हम कलम बन गई है.......manoj 

अभी अभी चलना सीखा हूँ

अभी अभी  चलना सीखा हूँ 
तुतला कर कहना सीखा  हूँ
अंजलि भर बूदों का पानी 
अभी अभी बहना सीखा हूँ
अभी अभी  चलना सीखा हूँ 


वात्सल्य का प्यासा हूँ 
नट खट की परिभाषा हूँ 
शोभा हूँ अपने आँगन की 
पौधा हूँ बढ़ना सीखा हूँ 
अभी अभी  चलना सीखा हूँ 


देखा देखी करता हूँ 
आवाजों से भी डरता हूँ 
भाव मेरे गंगा से निर्मल 
निस्वार्थ भाव मिलना सीखा हूँ 
अभी अभी  चलना सीखा हूँ .......manoj